शब-ए-हिज्राँ क्या सियाही न हुई रोज़-ए-सफ़ेद
ये वरक़ तू ने न ऐ गर्दिश-ए-अय्याम उल्टा
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तर्रार ज़ुल्फ़-ए-यार अगर चर्ख़ पर चढ़े
हम गबरू हम मुसलमाँ हम जम्अ हम परेशाँ
कुश्ता-ए-रंग-ए-हिना हूँ मैं ओजब इस का क्या
साअत-ए-ईसवियाँ है कि मिरा दिल जिस में
मैं तो जाता हूँ तरफ़ काबे के पर काफ़िर ये पाँव
याँ रख़्ना-हा-ए-सीना कुदूरत से हैं फटे
तिरे कूचे हर बहाने मुझे दिन से रात करना
रहमत तिरी ऐ नाक़ा-कश-ए-महमिल-ए-हाजी
गए हैं यार अपने अपने घर दालान ख़ाली है
तीन हिस्से हैं ज़मीं के ग़र्क़-ए-दरिया-ए-मुहीत
साबित तू रह जफ़ा पे मैं क़ाएम वफ़ा पे हूँ
क्या अदा से आवे है दीवाना कर के सैर-ए-बाग़