शब-ए-हिज्र का माजरा कोएले से
लिखा जा के मैं उस के दीवार-ओ-दर पर
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ख़्वाहिश-ए-वस्ल का मज़मूँ जो किसी सत्र में था
रुख़ से लहरा कर ज़नख़दाँ के हैं माइल मु-ए-ज़ुल्फ़
तमाशे की शक्लें अयाँ हो गई हैं
बैठे बैठे जो हम ऐ यार हँसे और रोए
मर जाऊँगा मैं या वही जावेगा मुझे मार
दम ग़नीमत है कि वक़्त-ए-ख़ुश-दिली मिलता नहीं
वादा-ए-वस्ल दिया ईद की शब हम को सनम
क्या वो भी चाव-चूज़ के दिन थे कि जिन दिनों
पैवस्ता गर्द-ए-दश्त रही गर तह-ए-दरूँ
ना-तवानी के सबब याँ किस से उट्ठा जाए है
सीना है पुर्ज़े पुर्ज़े जा-ए-रफ़ू नहीं याँ
रोज़-ए-विसाल जिस को कहती है ख़ल्क़ वो ही