शब तबक़ में आसमाँ के गिर पड़े थे मेरे अश्क
कुछ सवाबित बन गए कुछ उन से सय्यारे हुए
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इक जाम-ए-मय की ख़ातिर पलकों से ये मुसाफ़िर
क्या वो भी चाव-चूज़ के दिन थे कि जिन दिनों
नाज़ुक है दिल-ए-यार बहुत चाहिए मुझ को
शेर क्या जिस में नोक-झोक न हो
तरसा न मुझ को खींच के तलवार मार डाल
रहमत तिरी ऐ नाक़ा-कश-ए-महमिल-ए-हाजी
हम दिल को लिए बर-सर-ए-बाज़ार खड़े हैं
मैं वो दोज़ख़ हूँ कि आतिश पर मिरी
शब-ए-हिज्र सहरा-ए-ज़ुल्मात निकली
वो आप कर रही है मुदाम उस की जुस्तुजू
रही हमेशा तरक़्क़ी मिरी असीरी को
क़ासिद को उस ने जाते ही रुख़्सत किया था लेक