शब जो होली की है मिलने को तिरे मुखड़े से जान
चाँद और तारे लिए फिरते हैं अफ़्शाँ हाथ में
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मिज़्गाँ-ज़दन से कम है ज़मान-ए-नमाज़-ए-इश्क़
ग़ज़ल कहने का किस को ढब रहा है
आग़ोश की हसरत को बस दिल ही में मारुँगा
जीते अगर न हम तो क्यूँ ज़िल्लतें उठाते
जब दिल का जहाज़ अपना तबाही में पड़े है
रहने पे जो मस्जिद के मिरी शैख़ की बिगड़ी
ग़बग़ब से बचा दिल तो ज़ख़ंदान में डूबा
छुरियाँ चलीं शब दिल ओ जिगर पर
ग़म तिरा दिल में मिरे फिर आग सुलगाने लगा
वो आरज़ू न रही और वो मुद्दआ न रहा
जब इस में ख़ूँ रहा न तो ये दिल का आबला
मैं अजब ये रस्म देखी मुझे रोज़-ए-ईद-ए-क़ुर्बां