साया-ए-दीवार जो रोज़-ए-क़यामत में न था
मिर्ग-छाला अपना वाँ हम ने बिछाया धूप में
Jaun Eliya
Parveen Shakir
Faiz Ahmad Faiz
Javed Akhtar
Habib Jalib
Rahat Indori
Mir Taqi Mir
Ahmad Faraz
Anwar Masood
Wasi Shah
Mohsin Naqvi
Gulzar
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(268) Peoples Rate This
इस इमारत पर न कर मुनइम ग़ुरूर
ग़ज़ल ऐ 'मुसहफ़ी' ये 'मीर' की है
अपनी तो इस चमन में नित उम्र यूँही गुज़री
रातों को आँख उठा के ज़रा देख तो सही
ग़ुबार-ए-दिल को में मिज़्गान-ए-यार से झाड़ा
काम अज़-बस-कि ज़माने का हुआ है बर-अक्स
तेरे कूचे से सफ़र मैं ने किया था जिस दिन
पाँव में क़ैस के ज़ंजीर भली लगती है
मौज-ए-निकहत की सबा देख सवारी तय्यार
कोई घर बैठे क्या जाने अज़िय्यत राह चलने की
हम 'मुसहफ़ी' ब-कुफ़्र तो मशहूर हो चुके
निस्बत फिर उस से क्या मह-ए-दाग़ी को दीजिए