सौदा है ये किस ज़ुल्फ़ का इस को जो हमेशा
दीवाना तिरा फेंके है ज़ंजीर हवा पर
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कुफ़्र और दीं में तग़ायर नहीं गर देखिए ख़ूब
कपड़े बदल के आए थे आग मुझे लगा गए
उन को भी तिरे इश्क़ ने बे-पर्दा फिराया
ज़ेर-ए-नक़ाब आब-गूँ हाए-रे उन की जालियाँ
जब घर से वो बाद-ए-माह निकले
वो आहू-ए-रमीदा मिल जाए तीरा-शब गर
किसी के अक़्द में रहती नहीं है लूली दहर
पस-ए-क़ाफ़िला जो ग़ुबार था कोई उस में नाक़ा-सवार था
दिल्ली में अपना था जो कुछ अस्बाब रह गया
ऐ इश्क़ तेरी अब के वो तासीर क्या हुई
परेशाँ क्यूँ न हो जावे नज़ारा
क्या नाज़ुकी बदन की उस रश्क-ए-गुल के कहिए