सरक ऐ मौज सलामत तो रह-ए-साहिल ले
तुझ को क्या काम जो कश्ती मिरी तूफ़ान में है
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अगरचे दिल तो हमें तुम से कुछ अज़ीज़ नहीं
तू मेरे सामने बैठा है आह तिस पर भी
शाहिद रहियो तू ऐ शब-ए-हिज्र
वो जो आशिक़ हैं अपने हाथों से
हम दिल को लिए बर-सर-ए-बाज़ार खड़े हैं
आह हमराज़ कौन है अपना
अव्वल तो ये धज और ये रफ़्तार ग़ज़ब है
मूसा ने कोह-ए-तूर पे देखा जो कुछ वही
हर दम आते हैं भरे दीदा-ए-गिर्यां तुझ बिन
हर-चंद कि हो मरीज़-ए-मोहतात
जो तू ऐ 'मुसहफ़ी' रातों को इस शिद्दत से रोवेगा
सुन्नी ओ शीआ के क़ज़िए में है हैराँ मिरी अक़्ल