साक़ी मय-ख़ाना का गर कम-दही पर है मिज़ाज
हम भी यक फ़िंजाँ बना लेवेंगे साग़र तोड़ कर
Allama Iqbal
Ahmad Faraz
Anwar Masood
Mohsin Naqvi
Javed Akhtar
Faiz Ahmad Faiz
Rahat Indori
Parveen Shakir
Wasi Shah
Mir Taqi Mir
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क्या मैं जाता हूँ सनम छुट तिरे दर और कहीं
इक दिन तो लिपट जाए तसव्वुर ही से तेरे
अश्क से मेरे बचे हम-साया क्यूँ-कर घर समेत
हम से वो बे-सबब उलझती है
मख़्लूक़ हूँ या ख़ालिक़-ए-मख़्लूक़-नुमा हूँ
यूँ चश्म-ए-तर से चेहरे पर आँसू हुए रवाँ
लुट के मंज़िल से कोई यूँ तो न आया होगा
चराग़-ए-हुस्न-ए-यूसुफ़ जब हो रौशन
ख़ाक-ए-आग़श्ता-ब-ख़ूँ को मिरी बे-क़द्र न जान
मुझ को ये सोच है जीते हैं वे क्यूँ-कर या-रब
कुफ़्र और दीं में तग़ायर नहीं गर देखिए ख़ूब
बैठे बैठे जो हम ऐ यार हँसे और रोए