सल्तनत और ही माने रखती है
यूँ तो सर पर ख़ुरूस के भी है ताज
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अपना रफ़ीक़-ओ-आश्ना ग़ैर-ए-ख़ुदा कोई नहीं
इन आँखों से आब कुछ न निकला
ये दिल वो शीशा है झमके है वो परी जिस में
नासेहा दूर हो चल मुझ से तू हिज्जे मत कर
शब जो होली की है मिलने को तिरे मुखड़े से जान
ताब-ओ-ताक़त रहे क्या ख़ाक कि आज़ा के तईं
तेरे कूचे से सफ़र मैं ने किया था जिस दिन
क़ासिद को उस ने जाते ही रुख़्सत किया था लेक
जो शैख़-ए-शहर आया हम से औबाशों की मज्लिस में
नफ़ी ओ इसबात का हंगामा रहा उस कू मैं
दिल्ली में अपना था जो कुछ अस्बाब रह गया
कब लग सके जफ़ा को उस की वफ़ा-ए-आलम