सज्दा-गाह अपनी किए राह के रोड़े पत्थर
काबा ओ दैर के मैं चूम के छोड़े पत्थर
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गरचे ऐ दिल आशिक़-ए-शैदा है तू
बाल अपने बढ़ाते हैं किस वास्ते दीवाने
छोड़ा न एक लहज़ा तिरी ज़ुल्फ़ ने ख़याल
आता है किस अंदाज़ से टुक नाज़ तो देखो
ये ज़माना वो है जिस में हैं बुज़ुर्ग ओ ख़ुर्द जितने
सीने पे मेरे हर दम रखते हैं हाथ ख़ूबाँ
सुन्नी ओ शीआ के क़ज़िए में है हैराँ मिरी अक़्ल
पढ़ न ऐ हम-नशीं विसाल का शेर
मज़े में अब तलक बैठा मैं अपने होंठ चाटूँ हूँ
माशूक़ा-ए-गुल नक़ाब में है
अभी अपने मर्तबा-ए-हुस्न से मियाँ बा-ख़बर तू हुआ नहीं
तदबीर मआश इस जा है शर्त-ए-ख़िरद-मंदी