सज्दा करता हूँ मैं मेहराब समझ कर उस को
इश्क़ ने तेरे किया है मुझे शमशीर-परस्त
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एक तो बैठे हो दिल को मिरे खो और सुनो
मारे हया के हम से वो कल बोलता न था
ग़ज़ल ऐ 'मुसहफ़ी' ये 'मीर' की है
उस के दर पर मैं गया साँग बनाए तो कहा
आह देखी थी मैं जिस घर में परी की सूरत
बोइए मज़रा-ए-दिल में जो इनायात के बीज
किस ज़ुल्फ़-ए-सियह-फ़ाम के आई है मुक़ाबिल
तीखे तो हो प सच कहो उस वक़्त क्या करो
जिस बयाबान-ए-ख़तरनाक में अपना है गुज़र
शीशा-ए-मय की तरह ऐ साक़ी
ऐ इश्क़ तेरी अब के वो तासीर क्या हुई
गो कि तू 'मीर' से हुआ बेहतर