सहव और सुक्र में रहते हैं तभी तो फ़ुक़रा
क्यूँकि आलम है अजब बे-ख़बरी का आलम
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शायद कि किसी और से था वस्ल का वादा
पस-ए-क़ाफ़िला जो ग़ुबार था कोई उस में नाक़ा-सवार था
मैं अजब ये रस्म देखी मुझे रोज़-ए-ईद-ए-क़ुर्बां
ज़ुल्मात-ए-शब-ए-हिज्र की आफ़ात है और तू
ख़्वाब था या ख़याल था क्या था
पीछा किसी तरह ये मिरा छोड़ता नहीं
यादगार-ए-गुज़िश्तगाँ हैं हम
होवे न अज़ाब उस पे कभी जिस के पस-ए-मर्ग
इस रंग से अपने घर न जाना
ख़्वाहिश-ए-वस्ल तो रखता हूँ बहुत जी में वले
साक़ी मय-ख़ाना का गर कम-दही पर है मिज़ाज
अल्लाह-रे काफ़िरी तिरे तर्ज़-ए-ख़िराम की