सहराइयान-ए-पूरब क्या जानते हैं इस को
ऐ 'मुसहफ़ी' जुदा है अंदाज़ इस ज़बाँ का
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शब-ए-विसाल कब आती है मेरे घर ऐ चर्ख़
मुल्हिद हूँ अगर मैं तो भला इस से तुम्हें क्या
आता है यही जी में फ़रियाद करूँ रोऊँ
वो चहचहे न वो तिरी आहंग अंदलीब
ज़ि-बस हम को निहायत शौक़ है अमरद-परस्ती का
गर समझते वो कभी मअनी-ए-मत्न-ए-क़ुरआँ
कहते हो एक-आध की है मेरे हाथों मौत
जानते आप से जुदा तुझ को
ऐ इश्क़ तेरी अब के वो तासीर क्या हुई
कम है कुछ कुंदन से क्या चेहरे का उस के रंग-ए-ज़र्द
दिल ही दिल में याँ मोहब्बत अपना घर करती रही
आशिक़ कहें हैं जिन को वो बे-नंग लोग हैं