सफ़्फ़ाक इब्तिदा से वो बे-रहम है ग़लत
कहिए गर उस को आज जफ़ाकार हो गया
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यक क़तरा ख़ूँ बग़ल में है दिल मिरी सो इस को
क्या जानिए किस किस को मैं याँ दी है अज़िय्यत
शब-ए-हिज्र सहरा-ए-ज़ुल्मात निकली
ज़ेर-ए-नक़ाब आब-गूँ हाए-रे उन की जालियाँ
मख़्लूक़ हूँ या ख़ालिक़-ए-मख़्लूक़-नुमा हूँ
मैं पहरों घर में पड़ा दिल से बात करता हूँ
जम्अ रखते नहीं, नहीं मालूम
आए हो तो ये हिजाब क्या है
मुसव्विरों ने क़लम रख दिए हैं हाथों से
माशूक़ा-ए-गुल नक़ाब में है
पर्दा उठा के मेहर को रुख़ की झलक दिखा कि यूँ
इसी सबब तो परेशाँ रहा मैं दुनिया में