सादिक़ से बस इक आन में हो जावे तू काज़िब
दिखलाऊँ अगर तुझ को मैं उस ज़ुल्फ़ का ख़म सुब्ह
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'मीर' क्या चीज़ है 'सौदा' क्या है
सोहबत है तिरे ख़याल के साथ
तू जो जाता है वहीं नित दौड़ दौड़ ऐ 'मुसहफ़ी'
बोइए मज़रा-ए-दिल में जो इनायात के बीज
नासेहा दूर हो चल मुझ से तू हिज्जे मत कर
क्या अदा से आवे है दीवाना कर के सैर-ए-बाग़
ना-अहल हम हैं वर्ना सरापा में यार के
गर समझते वो कभी मअनी-ए-मत्न-ए-क़ुरआँ
तिरे मुँह छुपाते ही फिर मुझे ख़बर अपनी कुछ न ज़री रही
वाँ लाल फड़कता है अमीरों के क़फ़स में
आशिक़ तो मिलेंगे तुझे इंसाँ न मिलेगा
हाथ दोनों कफ़-ए-अफ़्सोस की सूरत लिक्खे