सच इश्क़ में हैं आशिक़ ओ माशूक़ बराबर
जो मुश्किल-ए-मजनूँ है सो है मुश्किल-ए-लैला
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सीने के ज़ोर से भी मू भर नहीं उकसती
सौदा है ये किस ज़ुल्फ़ का इस को जो हमेशा
आलम इस कार-ए-सन'अ का है तुर्फ़ा कि याँ
बर्क़-ए-रुख़्सार-ए-यार फिर चमकी
मुल्हिद हूँ अगर मैं तो भला इस से तुम्हें क्या
नज़र क्या आए ज़ात-ए-हक़ किसी को
ए'तिबारात हैं ये हस्ती-ए-मौहूमी के
ज़माने का चलन यकसाँ नहीं कुछ
क़लक़-ए-दिल से हैं जैसे मिरे रुख़्सारे ज़र्द
चश्म-ए-लैला का जो आलम है उन्हों की चश्म में
तू छोड़ अब तो असीर-ए-क़फ़स को ऐ सय्याद
अव्वल तो तिरे कूचे में आना नहीं मिलता