साबित तू रह जफ़ा पे मैं क़ाएम वफ़ा पे हूँ
मैं अपनी बान छोड़ूँ न तू अपनी आन छोड़
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आलम इस कार-ए-सन'अ का है तुर्फ़ा कि याँ
जो तू ऐ 'मुसहफ़ी' रातों को इस शिद्दत से रोवेगा
कुफ़्र और दीं में तग़ायर नहीं गर देखिए ख़ूब
शब-ए-हिज्र सहरा-ए-ज़ुल्मात निकली
तेरी इस्मत में हमें शक नहीं ऐ माया-ए-नाज़
दिल्ली हुई है वीराँ सूने खंडर पड़े हैं
'मुसहफ़ी' रशहा-ए-क़लम से मिरे
दिल ले गया है मेरा वो सीम-तन चुरा कर
एक नाले पे है मआश अपनी
हम न शाना न सबा हैं नहीं खुलता है ये भेद
क़िस्सा-ए-मजनूँ पसंद-ए-ख़ातिर जानाना है
सूख कर रह गया है काग़ज़ वार