सब उठ्ठे बज़्म से और अपने अपने घर को चले
व-लेक ये नहीं मालूम हम किधर को चले
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पीछा किसी तरह ये मिरा छोड़ता नहीं
अहल-ए-नसीहत जितने हैं हाँ उन को समझा दें ये लोग
अब मुझ को गले लगाओ साहिब
शोख़ी-ए-हुस्न के नज़्ज़ारे की ताक़त है कहाँ
तेरी क़सम है अपना तो रुक जाए जी वहीं
तुझ बिन तो कभी गुल के तईं बू न करूँ मैं
वाँ लाल फड़कता है अमीरों के क़फ़स में
हर्बा है आशिक़ों का फ़क़त आह-ए-पेचदार
कौन कहता है कि फिर ख़ाक से उठते हैं शहीद
कल पतंग उस ने जो बाज़ार से मँगवा भेजा
मादर-ए-दहर उठाती है जो हर दम मिरे नाज़
जी में आती है करूँ उन को मैं इक दिन सीधा