रोज़-ए-विसाल जिस को कहती है ख़ल्क़ वो ही
मज़हब में आशिक़ों के रोज़-ए-वफ़ात भी है
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'मुसहफ़ी' हर घड़ी जाया न करो तुम साहिब
हम सनम दम तिरे इश्क़ का भर गए
नर्मी-ए-बालिश-ए-पर हम को नहीं भाती है
जान जानी है मिरी ऐ बुत-ए-कम-सिन तुझ पर
शीशा-ए-मय की तरह ऐ साक़ी
हैराँ हूँ इस क़दर कि शब-ए-वस्ल भी मुझे
शहर में मुझ से भड़कता था तसव्वुर तेरा
इतना जो हम से रहते हो बेगाना मेरी जान
पटरे धरे हैं सर पर दरिया के पाट वाले
न पूछ इश्क़ के सदमे उठाए हैं क्या क्या
ग़ज़ल ऐ 'मुसहफ़ी' ये 'मीर' की है
किस वक़्त जुदा मुझ से वो कम्बख़्त हुई थी