रेख़्ता-गोई की बुनियाद 'वली' ने डाली
ब'अद-अज़ाँ ख़ल्क़ को 'मिर्ज़ा' से है और 'मीर' से फ़ैज़
Ahmad Faraz
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अज़-बस भला लगे है तू मेरे यार मुझ को
बस-कि हों मिल्लत-ओ-मज़हब से जहाँ के आज़ाद
ऐश-ए-जहाँ बग़ल में तुम्हारी सब आ रहा
मैं कर के चला बातें और उस शोख़ ने वोहीं
मैं पहरों घर में पड़ा दिल से बात करता हूँ
नसीम-ए-सुब्ह-ए-चमन से इधर नहीं आती
रहमत तिरी ऐ नाक़ा-कश-ए-महमिल-ए-हाजी
क़ैस मिले तो उस से पूछूँ क्या तिरे जी में आई दिवाने
सोहबत है तिरे ख़याल के साथ
दिल चुराना ये काम है तेरा
ध्यान बाँधूँ हूँ जो मैं उस की हम-आग़ोशी का
क्या क्या बदन-ए-साफ़ नज़र आते हैं हम को