रक्खा है ठौर मुझ को कहरवे के नाच ने
कूल्हा कहीं को जावे है उस का, कमर कहीं
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होता है मुसाफ़िर को दो-राहे में तवक़्क़ुफ़
सौदा है ये किस ज़ुल्फ़ का इस को जो हमेशा
मैं तेरे डर से न देखा उधर बहुत शब-ए-वस्ल
जब दिल का जहाज़ अपना तबाही में पड़े है
क़ासिद जो गया मेरा ले नामा तो ज़ालिम ने
हर दम आते हैं भरे दीदा-ए-गिर्यां तुझ बिन
तूर पर अपने किसी दिन भी ख़ुर-ओ-ख़्वाब है याँ
सूख कर रह गया है काग़ज़ वार
इस हवा में कर रहे हैं हम तिरा ही इंतिज़ार
पढ़ न ऐ हम-नशीं विसाल का शेर
गरचे तुम ताज़ा गुल-ए-गुलशन-ए-रानाई हो
किस की ख़ातिर को मुक़द्दम रख्खूँ मैं हैरान हूँ