रही हमेशा तरक़्क़ी मिरी असीरी को
गले पड़ी जो हुई पाँव से जुदा ज़ंजीर
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न प्यारे ऊपर ऊपर माल हर सुब्ह-ओ-मसा चक्खो
एक तो बैठे हो दिल को मिरे खो और सुनो
गो भूल गया हूँ मैं तुझे तो भी तिरा रंग
मुसव्विरों ने क़लम रख दिए हैं हाथों से
मेरे और यार के पर्दा तो नहीं कुछ लेकिन
हर्बा है आशिक़ों का फ़क़त आह-ए-पेचदार
हो चुका नाज़ मुँह दिखाइए बस
नसीबों से कोई गर मिल गया है
बचा गर नाज़ से तो उस को फिर अंदाज़ से मारा
महरूम है नामा-दार-ए-दुनिया
हसरत पे उस मुसाफ़िर-ए-बे-कस की रोइए
आसमाँ को निशाना करते हैं