क़िस्मत इक शब ले गई मुझ को जो बाग़-ए-वस्ल में
देखता क्या हूँ कि उस का बाग़बाँ कोई नहीं
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क़नाअत उस की निकलती है वाज़्गूनी में
सर अपने को तुझ पर फ़िदा कर चुके हम
ईद तू आ के मिरे जी को जलावे अफ़्सोस
बस-कि तेज़ाब से कुछ कम भी न था वो दम-ए-क़त्ल
तू जो जाता है वहीं नित दौड़ दौड़ ऐ 'मुसहफ़ी'
रखता है क़दम नाज़ से जिस दम तू ज़मीं पर
तन्हा न वो हाथों की हिना ले गई दिल को
ये रोज़ ढूँढ लाए है इक ख़ूब-रू नया
वादों ही पे हर रोज़ मिरी जान न टालो
पहलू में रह गया यूँ ये दिल तड़प तड़प कर
रात करता था वो इक मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार से बहस
मर जाऊँगा मैं या वही जावेगा मुझे मार