क़ासिद को उस ने जाते ही रुख़्सत किया था लेक
बद-ज़ात माँदगी के बहाने से रह गया
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शब-ए-हिज्राँ थी मैं था और तन्हाई का आलम था
मुँह छुपाओ न तुम नक़ाब में जान
मेरे और यार के पर्दा तो नहीं कुछ लेकिन
आना है यूँ मुहाल तो इक शब ब-ख़्वाब आ
घटती है शब-ए-वस्ल तो कहता हूँ मैं या-रब
होश उड़ जाएँगे ऐ ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ तेरे
तुम्हारी और मिरी कज-अदाइयाँ ही रहीं
ज़माने का चलन यकसाँ नहीं कुछ
गर हम से न हो वो दिल-सिताँ एक
ख़ुदा की क़सम फिर तो क्या ख़ैर होवे
दर्द-ओ-ग़म को भी है नसीबा शर्त
ने ज़ख़्म-ए-ख़ूँ-चकाँ हूँ न हल्क़-ए-बुरीदा हूँ