क़नाअत उस की निकलती है वाज़्गूनी में
गदा है बहर अगर कासा-ए-हबाब फिरे
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तुम्हारे हाथ को छोड़ूँ हूँ मैं कोई साहिब
फ़हमीदा है जो तुझ को तो फ़हमीद से निकल
नफ़ी ओ इसबात का हंगामा रहा उस कू मैं
मैं कर के चला बातें और उस शोख़ ने वोहीं
क़ासिद जो गया मेरा ले नामा तो ज़ालिम ने
मक़्सूद है आँखों से तिरा देखना प्यारे
जिस कू मैं हो गुज़ार-ए-परी-तलअतान-हिन्द
सिधारी क़ुव्वत-ए-दिल ताब और ताक़त से कह दीजो
होंटों तक आते आते हुई वो भी सर्द आह
इक हाल हो तो यारो उस का बयाँ करें हम
इतनी बे-शर्म-ओ-हया हो गई क्यूँ दुख़्तर-ए-रज़
जी में आती है करूँ उन को मैं इक दिन सीधा