पीछे फिर फिर देखता जाता हूँ और भागूँ हूँ मैं
अपने साए से भी अब तो मुझ को वहशत हो गई
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लग रही है ख़ाना-ए-दिल को हमारे आग हाए
अज़-बस-कि तू प्यारा है मुझे तेरे सिवा यार
दिल-ए-मायूस को पहने हुए आती हैं नज़र
शहर में मुझ से भड़कता था तसव्वुर तेरा
आग़ोश की हसरत को बस दिल ही में मारुँगा
कुछ इस क़दर नहीं सफ़र-ए-हस्ती-ओ-अदम
हर्बा है आशिक़ों का फ़क़त आह-ए-पेचदार
ज़ुल्फ़ अगर दिल को फँसा रखती है
मंसूर ने न ज़ुल्फ़ के कूचे की राह ली
अव्वल तो तिरे कूचे में आना नहीं मिलता
ख़ुदा की क़सम फिर तो क्या ख़ैर होवे
इन दिनों शहर से जी सख़्त ब-तंग आया है