पीछे पड़ी हैं दिल के बे-तरह मेरी आँखें
क्या जाने क्या करेंगी दरिया-ए-ख़ूँ बहा कर
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बीमार दिल जुदा है इधर मैं उधर जुदा
बाम-ए-फ़लक पे गर वो उड़ाता नहीं पतंग
कम है कुछ कुंदन से क्या चेहरे का उस के रंग-ए-ज़र्द
क्यूँ शेर-ओ-शायरी को बुरा जानूँ 'मुसहफ़ी'
वाँ लाल फड़कता है अमीरों के क़फ़स में
आई जो रूह-ए-लैला ज़ियारत को क़ैस की
सब उठ्ठे बज़्म से और अपने अपने घर को चले
नज़रों में एक बोसा माँगा था हम ने उस से
बातों ने उस की हम को ख़ामोश कर दिया है
मैं क्यूँकर न रख्खूँ अज़ीज़ अपने दिल को
जी से मुझे चाह है किसी की
मुफ़्लिस के दिए की सी तिरा दाग़-ए-दिल अपना