फिर आई ज़ुल्फ़-ए-मुसलसल की लहर पेश-ए-नज़र
फिर इक जुनूँ के नए सिलसिले हुए दिल में
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यारान-ए-सुख़न-गो की है वो कंपनी अपनी
उस के मक़्तल में मिरा ख़ून बटा दस्त-ब-दस्त
खुलता है क़ुफ़्ल-ए-ऐश मिरा इस से 'मुसहफ़ी'
होवे न अज़ाब उस पे कभी जिस के पस-ए-मर्ग
धो डालिए ख़ून 'मुसहफ़ी' का
सज्दा-गाह अपनी किए राह के रोड़े पत्थर
तू जो जाता है वहीं नित दौड़ दौड़ ऐ 'मुसहफ़ी'
सुल्ह-ए-कुल में मिरी गुज़रे है मोहब्बत के बीच
अब मुझ को गले लगाओ साहिब
मु-ए-जुज़ 'मीर' जो थे फ़न के उस्ताद
ख़ुर्शीद-रू हमारा जिस से मिलेगा हर सुब्ह
तुम बाँकपन ये अपना दिखाते हो हम को क्या