पेच दे दे लफ़्ज़ ओ मअनी को बनाते हैं कुलफ़्त
और वो फिर उस पे रखते हैं गुमान-ए-रेख़्ता
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ऐ दिल-ए-बे-जुरअत इतनी भी न कर बे-जुरअती
कहती है नमाज़-ए-सुब्ह की बाँग
मज़हब की मेरे यार अगर जुस्तुजू करें
दाग़-ए-दिल शब को जो बनता है चराग़-ए-दहलीज़
गर समझते वो कभी मअनी-ए-मत्न-ए-क़ुरआँ
हूँ मुशव्वश मुझे इस दम न लगा हाथ सबा
बे-मुरव्वत तुझे आज़ुर्दा करेंगे हम लोग
तकलीफ़ न दे हम को तो गुल-गश्त-ए-चमन की
'मुसहफ़ी' हम तो ये समझे थे कि होगा कोई ज़ख़्म
ईद अब के भी गई यूँही किसी ने न कहा
ऐ 'मुसहफ़ी' उस्ताद-ए-फ़न-ए-रेख़्ता-गोई
यक क़तरा ख़ूँ बग़ल में है दिल मिरी सो इस को