पाया-ए-तख़्त-ए-सुलैमाँ का है शाएर 'मुसहफ़ी'
है उसी के ख़ातिम-ए-दस्त-ए-सुलैमाँ हाथ में
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ज़ि-बस हम को निहायत शौक़ है अमरद-परस्ती का
ख़ाना-ए-दिल पे बिना अर्श की तू रख तो सही
हो चुका नाज़ मुँह दिखाइए बस
मैं तो जाता हूँ तरफ़ काबे के पर काफ़िर ये पाँव
ख़्वाब-ए-आराम में सोता था वो गुल क़हर हुआ
पान खाने की अदा ये है तो इक आलम को
माशूक़ा-ए-गुल नक़ाब में है
मैं ने क्या और निगह से तिरे रुख़ को देखा
अक़्ल गई है सब की खोई क्या ये ख़ल्क़ दिवानी है
वो आप कर रही है मुदाम उस की जुस्तुजू
सब उठ्ठे बज़्म से और अपने अपने घर को चले
ताब-ओ-ताक़त रहे क्या ख़ाक कि आज़ा के तईं