पर्दा-ए-गोश-ए-असीराँ न हुई इक शब-ए-गर्म
पाँव किस मुर्दे का या-रब मिरी ज़ंजीर में था
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आख़िर तो अर्श पर हैं अर्वाह-ए-शाइराँ भी
तरह ओले की जो ख़िल्क़त में हम आबी होते
ख़ुर्शीद-रू हमारा जिस से मिलेगा हर सुब्ह
हमें नित असीर-ए-बला चाहता है
होश उड़ जाएँगे ऐ ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ तेरे
मत गोर-ए-ग़रीबाँ पर घोड़े को कुदाओ यूँ
'मुसहफ़ी' मैं हूँ अब और जामा-ए-उर्यानी है
या थी हवस-ए-विसाल दिन रात
कहती है नमाज़-ए-सुब्ह की बाँग
रही हमेशा तरक़्क़ी मिरी असीरी को
नज़्र को किस गुल-ए-नौ-रस्ता के दामन में नसीम
'मुसहफ़ी' शिर्क भी ऐसे का नहीं यार बुरा