पान खाने की अदा ये है तो इक आलम को
ख़ूँ रुलाएगा मिरी जाँ दहन-ए-सुर्ख़ तिरा
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दुख़्तर-ए-रज़ की हूँ सोहबत का मुबाशिर क्यूँ-कर
बनाया एक काफ़िर के तईं उस दम मैं दो काफ़िर
मैं तरह डालूँ अगर सोच कर कहीं घर की
नज़र क्या आए ज़ात-ए-हक़ किसी को
सरासर ख़जलत-ओ-शर्मिंदगी है
अव्वल तो ये धज और ये रफ़्तार ग़ज़ब है
रो के इन आँखों ने दरिया कर दिया
न समझो तुम कि मैं दीवाना वीराने में रहता हूँ
लब बंद ही रक्खो, नहीं फिर और करेगा
इक हर्फ़-ए-कुन में जिस ने कौन-ओ-मकाँ बनाया
ख़्वारियाँ बदनामियाँ रुस्वाइयाँ
ज़ख़्म-ए-शमशीर-ए-निगह हैफ़ कि अच्छा न हुआ