पलकें नहीं छोड़तीं कि इक दम
आँखों से तिरी निगाह निकले
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वादा-ए-वस्ल दिया ईद की शब हम को सनम
घटती है शब-ए-वस्ल तो कहता हूँ मैं या-रब
चश्म-ए-लैला का जो आलम है उन्हों की चश्म में
शब मगर रह गई थोड़ी जो नज़र आता है
आज ख़ूँ हो के टपक पड़ने के नज़दीक है दिल
ठठ की ठठ इतनी चली आती है ये काहे को
लाख हम शेर कहें लाख इबारत लिक्खें
ले क़ैस ख़बर महमिल-ए-लैला तो न होवे
मूसा ने कोह-ए-तूर पे देखा जो कुछ वही
क्या बैठना क्या उठना क्या बोलना क्या हँसना
कुफ़्र और दीं में तग़ायर नहीं गर देखिए ख़ूब
जी जिस को चाहता था उसी से मिला दिया