पैवस्ता गर्द-ए-दश्त रही गर तह-ए-दरूँ
आया है जिस्म-ए-क़ैस अगर पैरहन के बीच
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ऐ 'मुसहफ़ी' उसे भी रखता है शाद जी में
बोइए मज़रा-ए-दिल में जो इनायात के बीज
किधर जाइए और कहाँ बैठिए
हरगिज़ रहा न काफ़िर ओ मोमिन से उस को काम
बिकते हैं शहर में गुल-ए-बे-ख़ार हर तरफ़
भरी आती हैं हर घड़ी आँखें
दाग़-ए-पेशानी-ए-ज़ाहिद न गया जीते-जी
गोया गिरह बहाने की एक उस पे थी लगी
सब उठ्ठे बज़्म से और अपने अपने घर को चले
मुझ से जो मेरी ज़ोहरा मिलती नहीं है अब तक
शब में वाँ जाऊँ तो जाऊँ किस तरह
मुझ को पामाल कर गया है वही