पैरहन लूटे मज़े तेरी हम-आग़ोशी के
हम करें चाक गिरेबान ख़ुदा की क़ुदरत
Javed Akhtar
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Gulzar
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Rahat Indori
Allama Iqbal
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गर हम से न हो वो दिल-सिताँ एक
जब घर से वो बाद-ए-माह निकले
पलकें नहीं छोड़तीं कि इक दम
हम तो उस कूचे में घबरा के चले आते हैं
इस तरफ़ भी कभी आना कि असीरान-ए-क़फ़स
शब में वाँ जाऊँ तो जाऊँ किस तरह
जानिब-ए-कअबा तू क्यूँ ले गया बुत-ख़ाने से
गर देखिए तो आईना-ए-क़द-नुमा की शक्ल
इस गोशा-ए-उज़्लत में तन्हाई है और मैं हूँ
क्या काम किया तुम ने थी ये भी अदा कोई
कैसी फ़रफ़र ज़बान चलती है
आसिफ़ुद्दौला-ए-मरहूम वो था शुस्ता-मिज़ाज