पहना जो मैं ने जामा-ए-दीवानगी तो इश्क़
बोला कि ये बदन पे तिरे सज गया लिबास
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सज्दा करता हूँ मैं मेहराब समझ कर उस को
ध्यान बाँधूँ हूँ जो मैं उस की हम-आग़ोशी का
समझ ले आशिक़ ओ माशूक़ की हम-आग़ोशी
आदमी से आदमी की जब न हाजत हो रवा
हम से पाई नहीं जाती कमर उस की ऐ ज़ुल्फ़
दो तीन दम-ए-सर्द भरे हैं तो वो बोले
जो कि पेशानी पे लिक्खा है वही होता है
इन दिनों शहर से जी सख़्त ब-तंग आया है
साअत-ए-ईसवियाँ है कि मिरा दिल जिस में
कर्बला है ये गली क्या जो नहीं मिलता याँ
इस मर्ग को कब नहीं मैं समझा
मैं क्या जानूँ क़लक़ क्या चीज़ है पर इतना जानूँ हूँ