नित जिन आँखों में रहे था तेरी सूरत का ख़याल
अब वो आँखें सूरत-ए-आईना हैं हैरत-परस्त
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मुझ को पामाल कर गया है वही
देख कर इक जल्वे को तेरे गिर ही पड़ा बे-ख़ुद हो मूसा
हर चंद अमरदों में है इक राह का मज़ा
न प्यारे ऊपर ऊपर माल हर सुब्ह-ओ-मसा चक्खो
कुछ टूटे फटे सीने को साथ अपने सफ़र में
हर-चंद कि वो जवाँ नहीं हम
इक बिजली की कौंद हम ने देखी
गर हो तमंचा-बंद वो रश्क-ए-फ़िरंगियाँ
गह तीर मारता है गह संग फेंकता है
हरगिज़ न मुझ से साफ़ हुआ यार या नसीब
ज़ख़्म-ए-शमशीर-ए-निगह हैफ़ कि अच्छा न हुआ
वादों ही पे हर रोज़ मिरी जान न टालो