निस्बत फिर उस से क्या मह-ए-दाग़ी को दीजिए
सारे बदन में जिस के न हो एक तिल कहीं
Gulzar
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बात को मेरी अलग हो के न शरमाओ सुनो
नख़्ल लाले जा जब ज़मीं से उठा
ढे जाने का कुछ घर के मुझे ग़म नहीं इतना
मैं किंगरा-ए-अर्श से पर मार के गुज़रा
फ़रियाद को मजनूँ की सुने कौन जहाँ हों
उस के लहराने में चाल आई न मुतलक़ साँप की
अहल-ए-नसीहत जितने हैं हाँ उन को समझा दें ये लोग
मैं तो समझूँगा जो समझाते हो मुझ को हर घड़ी
ख़ुश-तालई में शम्स ओ क़मर दोनों एक हैं
ग़ज़ल कहने का किस को ढब रहा है
मुँह में जिस के तू शब-ए-वस्ल ज़बाँ देता है
जब चाहे तू जला दे मिरे मुश्त-ए-उस्तुख़्वाँ