नाज़ुक है दिल-ए-यार बहुत चाहिए मुझ को
फ़रियाद करूँ आलम-ए-इम्काँ से निकल कर
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तरसा न मुझ को खींच के तलवार मार डाल
मिरा सलाम वो लेता नहीं मगर समझा
ऐ इश्क़ जहाँ है यार मेरा
हर रोज़ हमें घर से सहरा को निकल जाना
ऐ शब हिज्र कहीं तेरी सहर है कि नहीं
मज्लिस में उस की अब तो दरबार सा लगे है
इस हवा में कर रहे हैं हम तिरा ही इंतिज़ार
खावेंगे टाँके ज़ख़्म-ए-सर-ओ-रू पर ऐ तबीब
हैराँ हूँ इस क़दर कि शब-ए-वस्ल भी मुझे
शब-ए-हिज्राँ क्या सियाही न हुई रोज़-ए-सफ़ेद
इतने महकूम-ए-बुताँ हैं जो ये काफ़िर चाहें
दूकान-ए-मय-फ़रोश पे गर आए मोहतसिब