नज़रों में एक बोसा माँगा था हम ने उस से
उस ने भी ज़ेर-ए-लब ही कुछ कुछ कहा समझ कर
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जूँ ही ज़ंजीर के पास आए पाँव
आसाँ नहीं है तन्हा दर उस का बाज़ करना
अहल-ए-नसीहत जितने हैं हाँ उन को समझा दें ये लोग
घटती है शब-ए-वस्ल तो कहता हूँ मैं या-रब
दिल ले गया है मेरा वो सीम-तन चुरा कर
क्यूँ शेर-ओ-शायरी को बुरा जानूँ 'मुसहफ़ी'
मैं किंगरा-ए-अर्श से पर मार के गुज़रा
शब मगर रह गई थोड़ी जो नज़र आता है
ख़्वाब-ए-आराम में सोता था वो गुल क़हर हुआ
जाते जाते राह में उस ने मुँह से उठाया जूँही पर्दा
यार रोते रहे सब रूह ने परवाज़ किया
उस के मक़्तल में मिरा ख़ून बटा दस्त-ब-दस्त