नज़्र को किस गुल-ए-नौ-रस्ता के दामन में नसीम
भर के फूलों का इक अम्बार लिए फिरती है
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मार नहिं डालते हैं यूँ उस को
मुश्ताक़ ही दिल बरसों उस ग़ुंचा-दहन का था
वो चहचहे न वो तिरी आहंग अंदलीब
ऐ 'मुस्हफ़ी' सद-शुक्र हुआ वस्ल मयस्सर
रुख़ से लहरा कर ज़नख़दाँ के हैं माइल मु-ए-ज़ुल्फ़
मुवाफ़क़त हो जो ताले की उस की मज्लिस में
मैं ने क्या और निगह से तिरे रुख़ को देखा
आँखों को फोड़ डालूँ या दिल को तोड़ डालूँ
होवे न अज़ाब उस पे कभी जिस के पस-ए-मर्ग
यक नाला-ए-आशिक़ाना है याँ
क्या जानिए किस किस को मैं याँ दी है अज़िय्यत
रातों को आँख उठा के ज़रा देख तो सही