नख़्ल-ए-हिरमाँ को न थी बालीदगी
गरचे कितनी उस पे बरसातें हुईं
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हम से पाई नहीं जाती कमर उस की ऐ ज़ुल्फ़
वो आप कर रही है मुदाम उस की जुस्तुजू
ऐ ग़म-ज़दा ज़ब्त कर के चलना
उस के कूचे में पुकारेगा अगर मुझ को रक़ीब
क्या तअज्जुब है अगर फिर के हो अहया मेरा
बीमार दिल जुदा है इधर मैं उधर जुदा
कम है कुछ कुंदन से क्या चेहरे का उस के रंग-ए-ज़र्द
दिल दुखा ही करे है सीने में
मु-ए-जुज़ 'मीर' जो थे फ़न के उस्ताद
गर हो तमंचा-बंद वो रश्क-ए-फ़िरंगियाँ
मत गोर-ए-ग़रीबाँ पर घोड़े को कुदाओ यूँ
दूकान-ए-मय-फ़रोश पे गर आए मोहतसिब