ना-अहल हम हैं वर्ना सरापा में यार के
वो उज़्व कौन सा है कि इश्क़-आफ़रीं नहीं
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है ये फ़लक-ए-सिफ़्ला वो फीका सा फ़रंगी
शैख़ मग़रूर है इस्लाम पे क्या साथ अपने
मुसव्विरों ने क़लम रख दिए हैं हाथों से
ये रोज़ ढूँढ लाए है इक ख़ूब-रू नया
किस राह गया लैला का महमिल नहीं मालूम
शीशा-ए-मय की तरह ऐ साक़ी
हर रोज़ हमें घर से सहरा को निकल जाना
कहीं मग़्ज़ उस के मैं सुब्ह-दम तिरी बू-ए-ज़ुल्फ़-ए-रसा गई
उस के कूचे में पुकारेगा अगर मुझ को रक़ीब
मैं तरह डालूँ अगर सोच कर कहीं घर की
दाग़-ए-दिल शब को जो बनता है चराग़-ए-दहलीज़
तेरी ही ज़ात से तो है वाबस्ता ये तिलिस्म