न आया शाम भी घर फिर के अपने
तमाशाई-ए-बाज़ार-ए-मोहब्बत
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देखना कम-निगही कीजियो मत ऐ साक़ी
घर में बाशिंदे तो इक नाज़ में मर जाते हैं
इस इमारत पर न कर मुनइम ग़ुरूर
आह हमराज़ कौन है अपना
मैं तेरे डर से न देखा उधर बहुत शब-ए-वस्ल
कपड़े बदल के आए थे आग मुझे लगा गए
धो डालिए ख़ून 'मुसहफ़ी' का
दिल उलझता रहा ता-सुब्ह हमारा शब को
अव्वल तो थोड़ी थोड़ी चाहत थी दरमियाँ में
वो आप कर रही है मुदाम उस की जुस्तुजू
सामने उस के लगूँ रोने तो झुँझला के कहे
लगते हैं नित जो ख़ूबाँ शरमाने बावले हैं