मुज़्दा ऐ यास कि याँ कुंज-ए-क़फ़स के क़ैदी
यक-ब-यक मौसम-ए-परवाज़ में मर जाते हैं
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क्या अदा से आवे है दीवाना कर के सैर-ए-बाग़
कम है कुछ कुंदन से क्या चेहरे का उस के रंग-ए-ज़र्द
इस इमारत पर न कर मुनइम ग़ुरूर
रखें हैं जी में मगर मुझ से बद-गुमानी आप
इतनी तो मुझ को सैर-ए-चमन की हवस न थी
क्या जानिए चमन में क्या ताज़ा गुल खिला हो
मंज़िल-ए-मर्ग के आ पहुँचे हैं नज़दीक अब तो
हर-चंद कि बात अपनी कब लुत्फ़ से ख़ाली है
'मुसहफ़ी' तू ने ज़ि-बस गुल के लिए हैं बोसे
हर चंद अमर्दों में है इक राह का मज़ा
दिल ही दिल में याँ मोहब्बत अपना घर करती रही
शाहिद रहियो तू ऐ शब-ए-हिज्र