मुवाफ़क़त हो जो ताले की उस की मज्लिस में
तो हम भी क़हर हैं जिस तिस से साज़ करने को
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उस शाहिद-ए-निहाँ का कुश्ता हूँ मैं कि जिस ने
तीन हिस्से हैं ज़मीं के ग़र्क़-ए-दरिया-ए-मुहीत
कुश्ता-ए-रंग-ए-हिना हूँ मैं ओजब इस का क्या
रुख़ ज़ुल्फ़ में बे-नक़ाब देखा
उस्ताद कोई ज़ोर मिला क़ैस को शायद
मैं क्या जानूँ क़लक़ क्या चीज़ है पर इतना जानूँ हूँ
हाथों से उस के शीशा-ए-दिल चूर है मिरा
मुझ से जो मेरी ज़ोहरा मिलती नहीं है अब तक
गर मज़ा चाहो तो कतरो दिल सरौते से मिरा
ने बुत है न सज्दा है ने बादा न मस्ती है
तख़्ता-ए-आब-ए-चमन क्यूँ न नज़र आवे सपाट
तकलीफ़ न दे हम को तो गुल-गश्त-ए-चमन की