'मुसहफ़ी' तू ने ज़ि-बस गुल के लिए हैं बोसे
रश्क से देखे है बुलबुल दहन-ए-सुर्ख़ तिरा
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धोया गया तमाम हमारा ग़ुबार-ए-दिल
मारे हया के हम से वो कल बोलता न था
ज़ि-बस ख़ून-ए-ग़लीज़ आँखों से आया
भूल जावे साहिब-ए-इक़बाल अपनी सर-कशी
रो के इन आँखों ने दरिया कर दिया
दफ़ीना घर में क्या था और तो हम बादा-नोशों के
गर रहूँ शहर में हो दूद के बाइस ख़फ़क़ाँ
जाने दे टुक चमन में मुझे ऐ सबा सरक
काफ़िर मुझे न कहियो ऐ मोमिनान-ए-सादिक़
न वो वादा-ए-सर-ए-राह है न वो दोस्ती न निबाह है
जिस कू मैं हो गुज़ार-ए-परी-तलअतान-हिन्द
ऐ फ़लक किस ने कहा था तुझे ये तो बतला