'मुसहफ़ी' रशहा-ए-क़लम से मिरे
'मीर' की कुल्लियात भीगी है
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जिस्म ने रूह-ए-रवाँ से ये कहा तुर्बत में
नर्मी-ए-बालिश-ए-पर हम को नहीं भाती है
इस क़दर भी तो मिरी जान न तरसाया कर
क्यूँ शेर-ओ-शायरी को बुरा जानूँ 'मुसहफ़ी'
ये आँखें हैं तो सर कटा कर रहेंगी
है ये फ़लक-ए-सिफ़्ला वो फीका सा फ़रंगी
ज़ेर-ए-नक़ाब आब-गूँ हाए-रे उन की जालियाँ
परेशाँ क्यूँ न हो जावे नज़ारा
मोहब्बत ने किया क्या न आनें निकालीं
काम में अपने ज़ुहूर-ए-हक़ है आप
मंसूर ने न ज़ुल्फ़ के कूचे की राह ली
औरों की तरफ़ तू देखता है