'मुस्हफ़ी' कुछ कम नसारा से नहीं
उस का जो क़ुरआँ है वो इंजील है
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दिल्ली हुई है वीराँ सूने खंडर पड़े हैं
जाड़ों में है ये रंग कि अपने लिहाफ़ के
तड़ावे के लिए है ख़्वान पोश महर-ओ-मह नादाँ
दाग़-ए-दिल शब को जो बनता है चराग़-ए-दहलीज़
मैं उन मुसाफ़िरों में हूँ इस चश्म-ए-तर के हाथ
मरते मरते इसी बुत का मुझे कलमा पढ़ना
क़ासिद को उस ने जाते ही रुख़्सत किया था लेक
ग़ुस्से को जाने दीजे न तेवरी चढ़ाइए
मौज-ए-निकहत की सबा देख सवारी तय्यार
फ़रियाद को मजनूँ की सुने कौन जहाँ हों
ले गया काजल चुरा दुज़्द-ए-हिना
अब मुझ को गले लगाओ साहिब