'मुसहफ़ी' इस से भी रंगीं ग़ज़ल इक और लिखी
रख दिया ताज़ा गुलिस्ताँ को गुलिस्ताँ के तले
Javed Akhtar
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तू देखे तो इक नज़र बहुत है
बैठा था आ के क़ैस तो लैला के दर पे लेक
हरगिज़ रहा न काफ़िर ओ मोमिन से उस को काम
ख़ुदा की क़सम फिर तो क्या ख़ैर होवे
दिल उलझता रहा ता-सुब्ह हमारा शब को
ज़ालिम ख़ुदा के वास्ते बैठा तो रह ज़रा
सामने उस के लगूँ रोने तो झुँझला के कहे
क्या खींचे है ख़ुद को दूर अल्लाह
ढूँढता है मुझे वो तेग़ लिए और मैं वहीं
किस वक़्त जुदा मुझ से वो कम्बख़्त हुई थी
आशिक़ कहें हैं जिन को वो बे-नंग लोग हैं
आना है यूँ मुहाल तो इक शब ब-ख़्वाब आ